संपादकीय

मोबाइल तंत्र में ज्ञान का लोकतंत्र

  • ऑनलाइन शापिंग वेबसाइट अभी कुछ दिन पहले ग्रीष्म सेल चला रही थी—मोबाइल ले लो, फिर मानसून सेल में भी उसने यही कहा कि मोबाइल ले लो। ओके। फिर स्वतंत्रता दिवस की सेल पर भी यही कहा कि मोबाइल ले लो।

  • फिर गणेश उत्सव की सेल में भी वह शापिंग वेबसाइट यह बतायेगी—मोबाइल लीजिये, एकदम खास आपके लिए। फिर दीवाली सेल पर तो उसे यह बताना ही है कि मोबाइल लेना तो आपका कर्तव्य है। मोबाइल के इतने आफर आसपास टहल रहे हैं कि मुझे फील हो रहा है कि जीवन का एकमात्र उद्देश्य मोबाइल खरीदना ही है। मोबाइल खरीदना ही नहीं, बल्कि बार-बार लगातार मोबाइल खरीदना ही उद्देश्य है। अभी एक कंपनी ने मोबाइल लांच किया, जिसे मोड़ा जा सकता है, करीब डेढ़ लाख का मोबाइल। यह बात मैंने मोबाइल के एक सेल्समैन से कही कि डेढ़ लाख में तो एक जमाने में शादी हो जाया करती थी। उसने मुझे बताया मोबाइल और शादी में समानता यह है कि दोनों में सुनने का इंतजाम होता है। पर मोबाइल में दो राहतें हैं, एक तो आप इसे साइलेंट कर सकते हैं, दूसरा यह कि डेढ़ दो साल में यह निपट लेता है।

  • उसका आशय यह था कि डेढ़ लाख में ले लीजिये, राहत रहेगी। स्पेशल मोबाइल है, इसे मोड़ सकते हैं। एक मोबाइल आया था लाख से ऊपर का, उसमें बताया गया था कि कतई चिरकुट टाइप लोगों की सेल्फी भी इसमें बहुत ही स्मार्ट आती है। बंदे में स्मार्टनेस न हो तो कोई भी दिक्कत नहीं, महंगा स्मार्टफोन खऱीदने की क्षमता है तो हर कोई स्मार्ट दिख सकता है। पर भाई कितना स्मार्ट दिखें, हर महीने नयी स्मार्टनेस के चक्कर में नया फोन ही खरीदते रहें।

  • मोबाइल सेल्समैन ने जवाब दिया—क्या हर्ज है। हर महीने खरीदिये। मुडऩे वाले फोन से फोटो खींचिये, बीस कैमरे वाले फोन से खींचिये सेल्फी, बस खरीदिये। मोबाइल प्रधान विश्व कर रखा। अजब हाल है, किसी से मिलने जाइये, उस घर में छोटे बच्चे हों, तो वो सबसे पहले मोबाइल पकड़ते हैं और मोबाइल पर लग जाते हैं। बड़े मोबाइल की बातें करते हैं, मोबाइल के मॉडलों की बात करते हैं। मोबाइल की बातें हैं, मोबाइल पर बातें हैं। खबर मोबाइल पर, मैसेज मोबाइल पर, मोबाइल से बाहर कोई दुनिया भी है, ऐसा नयी पीढ़ी के कई लोगों को पता नहीं है।

  • मोबाइल पर ही शोक संवेदना, मोबाइल पर ही खुशी का इजहार, पर बंदा निपट ले तो उसे निपटाने के लिए ऑफलाइन श्मशानघाट ही ले जाना पड़ता है। वहां मामला ऑनलाइन नहीं हो सकता। यह मोबाइल की सीमा है। वरना कोई कंपनी इस तरह का सॉफ्टवेयर ले आती कि डेड बॉडी को स्कैन करें, अपने आप हमारा सॉफ्टवेयर उसे निपटा देगा। सब को मोबाइल ही निपटायेगा, बल्कि निपटा ही रहा है। सुबह से शाम तक मोबाइल से हासिल ज्ञान से कोई भी बड़े-बड़े प्रोफेसरों को निपटा देता है। बड़े-बड़े विद्वान व्हाट्सएप पर बरस रहे ज्ञान के आगे धराशायी हो जाते हैं। हजार मोबाइलों पर व्हाट्सएप ज्ञान के आगे एक प्रोफेसर की एक किताब हार जाती है। यह ज्ञान का लोकतंत्र है, जिसका मैसेज ज्यादा शेयर हो गया, वह ज्ञानी।

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