बीत गये अब दिखावे के सम्मोहक दिन
जब समाज मोटरसाइकिल से इम्प्रेस होता है तो आम आदमी के पास साइकिल होती है। जब समाज कार से इम्प्रेस होता है तो आम आदमी के पास एक्टिवा होती है। जब जुगाड़ बिठाकर हम कार खरीद लेते हैं तो लोग कार से नहीं बल्कि खास ब्रांड की कार से इम्प्रेस होते हैं। यह ब्रांड हमारे बलबूते के बाहर का बिच्छू होता है।
समाज का एक वर्ग विशेष ऐसा है जो सदा दूसरों को प्रभावित करने में ही जुटा रहता है। पर अब लोगों ने इम्प्रेस होना छोड़ दिया है। दौलत, शोहरत और रुतबे की धौंस अब कोई नहीं सहन करता। कौन क्या खरीद रहा है, क्या खा-पहन रहा है, सब अर्थहीन हो चुका है। सब अपनी धुन में पूरी तरह रम चुके हैं। समय तो वह भी था जब कोई नयी साइकिल खरीदता तो पड़ोसी हाथ लगा-लगा कर देखा करते। किसी के घर नया टीवी-वीसीआर आता तो पूरी गली के लिये कौतूहल हुआ करता। यह वह समय था जब लोगों को नयी खरीद करने में भी आनंद आता था और देखने वालों को भी। अब कौन परवाह करता है टीवी छत्तीस इंची लाओ या छप्पन इंची, सब निस्सार है। झूठी शान और आडम्बर अच्छे-अच्छों की छाती पर बुलडोजर-सा लेवल कर देते हैं।
अब धनवानों के तो समय ने छक्के छुड़ा दिये हैं। बड़े-बड़े बंगलों में बड़े-बड़े लोग और एक बड़ी-सी मेज पर सजे हुए थाल में बिना तड़के की दाल, उबली-सब्जियां, बिना घी चुपड़ी रोटी। खाने के बाद बगैर चीनी-दूध की चाय। और आखिर में एक छोटी-सी डिबिया में से पांच-सात किस्म-किस्म की गोलियां। ले लो मजे। और करो तिया-पांचा कि कुछ मनभावन खा भी न सको।
गांवों में और खेतों की ढाणियों में या कस्बों और शहरों के गली-मोहल्लों में सहज जीवनयापन करने वाले लोग घी, दूध, मलाई-मिठाई में आठों पहर निमग्न रह रहे हैं। ग्रीन टी का तो उन्हें बोध ही नहीं है। हां, दूध में पत्ती चलती है और सुबह-सांझ की गोलियों से वे नावाकिफ हैं। दिखावे के चक्कर में बड़े घरों में न भाईचारा बचा और न ताईचारा। पैसे की हूक में भाई क्या और ताई क्या, सब मुंहफोड़ी में लगे हैं।