दमन, हनन और सत्ता का मन
राजकुमार सिंह
उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिले लखीमपुर खीरी के तिकुनिया कस्बे में रविवार को हुई दिल दहला देने वाली घटना ने राजनीति ही नहीं, पूरी व्यवस्था के चेहरे, चाल और चरित्र को बेनकाब कर दिया है। दो पक्षों में टकराव में हादसे पहले भी होते रहे हैं, लेकिन यह कल्पना भी मुश्किल है कि विरोध प्रदर्शन करने वालों को किसी सत्ताधीश का परिजन या समर्थक इस तरह दिनदहाड़े इरादतन अपने वाहन से कुचल दें। यह भी कि जवाबी हिंसा में भी तीन-चार लोग मार डाले जायें। आखिर हम संविधानसम्मत शासन वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं, किसी जंगल राज में नहीं। पर यह हृदयविदारक प्रकरण हुआ, और उस पर पर्दा डालने की कवायद भी। यदि यह हादसा भी था, तो सच पर पर्दा डालने के बजाय पीडि़तों को न्याय और दोषियों को दंड की त्वरित कार्रवाई की जानी चाहिए थी। पर जैसा कि घटना संबंधी वायरल वीडियोज से खुलासा हो रहा है, यह हादसा नहीं, बल्कि विरोध प्रदर्शनकारी किसानों को सत्ता के मद में सबक सिखाने की सुनियोजित साजिश थी।
केंद्र सरकार द्वारा पिछले साल कोरोना कहर के बीच ही बनाये गये तीन कृषि कानूनों के विरोध में लगभग 11 महीने से किसान देश की राजधानी दिल्ली की दहलीज पर आंदोलरत हैं। बेशक इसी साल 26 जनवरी को दिल्ली में लाल किले पर कब्जा कर झंडा फहराने की विवादास्पद घटना इसी आंदोलन के बीच हो चुकी है। सरकार और किसानों के बीच टकराव की अन्य घटनाएं भी हुई हैं, पर इस तरह का आपराधिक आचरण कहीं नजर नहीं आया। देर-सवेर मामले को संभाल ही लिया गया, लेकिन लखीमपुर खीरी में जो कुछ हुआ, उससे सत्ता केंद्रित राजनीति की संकीर्ण सोच और स्वामिभक्त नौकरशाही के दृष्टिदोष ही उजागर हुए। कानून शासित सभ्य समाज में यह कैसे स्वीकार्य हो सकता है कि बिना राग-द्वेष के विधिपूर्वक शासन की संवैधानिक शपथ लेने वाला देश का गृह राज्य मंत्री आंदोलनरत किसानों को दो मिनट में सुधार देने की आपराधिक चेतावनी दे? दरअसल 8 लोगों की मौत का साक्षी बने लखीमपुर खीरी कांड के मूल में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी की वही चेतावनीनुमा धमकी है। अजय मिश्रा द्वारा आंदोलनकारी किसानों को धमकी का वायरल वीडियो 25 सितंबर का बताया जा रहा है, और तीन अक्तूबर को उनके उग्र समर्थकों ने विरोध प्रदर्शन कर रहे चार किसानों को गाडिय़ों से कुचल कर मार दिया। जवाबी हिंसा में जो चार लोग मारे गये, उनमें दो भाजपा कार्यकर्ता एक अजय मिश्रा का ड्राइवर और एक पत्रकार हैं।
अजय मिश्रा तो आज तक भी इस बात से इनकार कर रहे हैं, पर किसानों के कुचलने के वायरल वीडियोज से ही यह खुलासा होने के दावे किये जा रहे हैं कि दरअसल जिस थार जीप ने किसानों को कुचला, उसमें अजय मिश्रा का बेटा आशीष मिश्रा उर्फ मोनू भैय्या सवार था, जो कांड को अंजाम देकर फायरिंग करता हुआ भाग गया। घटना की पृष्ठभूमि भी जान लें। अजय मिश्रा लखीमपुर खीरी से सांसद हैं। तीन अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री कैशव प्रसाद मौर्य का क्षेत्र में कार्यक्रम था और मिश्रा पिता-पुत्र अपने समर्थकों समेत उनके स्वागत की तैयारियों में जुटे थे तो किसान पूर्व घोषित कार्यक्रम के मुताबिक विरोध प्रदर्शन की तैयारियों में। उसी दौरान यह हादसा हुआ, जो सुनियोजित साजिश ज्यादा नजर आता है। वैसे उत्तर प्रदेश में सामाजिक-राजनीतिक समीकरण साधने के लिए कुछ महीने पहले ही केंद्र में गृह राज्य मंत्री बनाये गये अजय मिश्रा का अतीत पाक-साफ नहीं रहा है। हत्या, धमकी, मारपीट के कई मामलों में बेशक वह बरी हो चुके हैं, पर एक मामले में अभी भी जमानत पर हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा से नाराज बताये जा रहे ब्राह्मण समुदाय को खुश करने के लिए अगर ऐसे दागी व्यक्ति को केंद्र में मंत्री बनाया जाता है तो सिर्फ राजनीतिक व्यवस्था ही नहीं, समाज विशेष को भी आत्मविश्लेषण करना चाहिए। आखिर दागी दामन वाले अजय मिश्रा, विकास दुबे या ऐसा कोई और भी, किसी समुदाय की अस्मिता का प्रतीक कैसे हो सकता है?
जिस लखीमपुर खीरी कांड के मूल में राजनीति है, उस पर राजनीति तो होनी ही थी। नेतृत्व संकट से गुजर रही कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी बिना वक्त गंवाये लखनऊ होते हुए रविवार रात ही सीतापुर पहुंच गयीं, लेकिन घटना के बाद जागे पुलिस-प्रशासन ने उन्हें लखीमपुर खीरी नहीं जाने दिया। उधर समाजवादी पार्टी के मुखिया एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को लखनऊ से ही नहीं निकलने दिया। आखिर प्रियंका और राहुल गांधी को बुधवार को भी तो पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों के साथ लखीमपुर खीरी जाने ही दिया, तब शांति व्यवस्था को कौन-सा संकट खड़ा हो गया? जबकि जिन किसान आंदोलनकारियों को दो मिनट में सुधारने की चेतावनी अजय मिश्रा दे रहे थे (जिसे उनके समर्थकों ने अंजाम भी दे दिया),उन्हीं के नेता राकेश टिकैत को लखीमपुर खीरी पहुंचने में पुलिस-प्रशासन ने पूरी मदद की। इस विरेाधाभास के अपने-अपने विश्लेषण आधारित निष्कर्ष हो सकते हैं, पर सच यह भी है कि हादसे की भयावहता के संभावित प्रभाव-परिणाम ने आसन्न विधानसभा चुनाव वाले उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को बुरी तरह डरा दिया। इसीलिए जो राकेश टिकैत पूरे देश में घूम-घूम कर भाजपा और उसकी सरकारों को कोस रहे हैं, उन्हीं की मध्यस्थता से लखीमपुर खीरी कांड में मृतक किसानों के परिजनों को अंतिम संस्कार और समझौते के लिए मनाया गया। यह समझौता 45 लाख रुपये मुआवजा, एक परिजन को सरकारी नौकरी, न्यायिक जांच और सप्ताह भर में दोषियों की गिरफ्तारी की बात पर हुआ। जानते हैं, समझौते की घोषणा करते समय टिकैत के साथ आला पुलिस अफसर कौन मौजूद था? वही, अतिरिक्त पुलिस महा निदेशक (कानून एवं व्यवस्था) प्रशांत कुमार , जिन्होंने हाथरस बलात्कार एवं हत्या कांड में पीडि़ता से बलात्कार न होने का दावा टीवी न्यूज चैनलों पर जोर-शोर से किया था, जो बाद में सीबीआई जांच में पूरी तरह गलत पाया गया। उसके बाद भी अगर उन जैसे अफसर ऐसे संवेदनशील जिम्मेदार पदों पर काबिज हैं तो उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था का हाल और हो भी क्या सकता है!
जाहिर है, दोनों ही पक्षों ने सोच-समझ कर समझौता किया होगा, लेकिन प्राकृतिक न्याय और सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के भी कुछ तकाजे होते हैं। धमकी दे रहे अजय मिश्रा और किसानों को कुचल कर गाड़ी से उतर भाग रहे आशीष मिश्रा के वायरल वीडियोज अगर सही हैं (केंद्र व राज्य सरकार के पास जरूरी जांच के सभी संसाधन उपलब्ध हैं) तो पिता की केंद्रीय गृह राज्य मंत्री पद से विदाई और पुत्र की गिरफ्तारी में विलंब समझ और तर्क से परे है। इसलिए भी क्योंकि उत्तर प्रदेश और केंद्र, दोनों ही जगह उस भाजपा का शासन है, जो राजनीति ही नहीं, पूरी व्यवस्था का चाल, चेहरा और चरित्र बदलने के वादे के साथ सत्ता में आयी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं को प्रधान सेवक कहलवाना पसंद करते हैं, और योगी आदित्यनाथ तो हैं ही संत। फिर वे क्यों और कैसे ऐसे हादसों पर मूकदर्शक बने रह सकते हैं? जितनी तत्परता और प्रतिबद्धता विपक्षी नेताओं को पिछले साल हाथरस और अब लखीमपुर खीरी जाने से रोकने में शासन तंत्र ने दिखायी, उसकी 50 प्रतिशत भी अगर जिम्मेदार-जवाबदेह कानून व्यवस्था बनाये रखने में हो तो शायद ऐसे शर्मसार करने वाले कांड ही न हों। जाहिर है, उत्तर प्रदेश में पांच महीने बाद चुनाव हैं तो लखीमपुर खीरी में किसानों को कुचलने वाला कांड हो या गोरखपुर का मनीष गुप्ता हत्याकांड, ऐसी हर घटना पर राजनीति भी होगी ही। उसमें गलत भी क्या है? विपक्ष का यह कर्तव्य भी और अधिकार भी कि वह सत्ता पक्ष की नाकामियों को उजागर करे, चुनावी मुद्दा बनाये। जो आज सत्ता में हैं, वे भी विपक्ष में रहते हुए यही सब करते थे। इसलिए विपक्ष को राजनीति करने से रोकने में अपना समय-ऊर्जा खर्च करने से बेहतर होगा कि नाकामियों से सबक लेकर अपनी कारगुजारियां सुधारी जायें और सत्ता-राजनीति करते हुए भी उस संविधान की आत्मा-भावना को न भुलाया जाये, जिसकी शपथ लेकर राजनीतिक नेतृत्व से लेकर नौकरशाही तक अपना पद भार संभालते हैं।