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पहले बेटियों के प्रति नजरिया बदलें

लक्ष्मीकांता चावला
नवरात्र यानी देवी मां की आराधना का पर्व हर साल पूरे देश में श्रद्धा व उत्साह से मनाया जाता है। प्रतिदिन देवी मां की पूजा-अर्चना की जाती है। मां प्रथम गुरु है, मां प्रथम आचार्य है और बेटी को लक्ष्मी, दुर्गा के रूप में ही स्वीकार किया जाता है। यह हमारे देश की संस्कृति का सुखद, गौरवशाली पक्ष है, पर आज जिन विकृतियों का शिकार सामाजिक जीवन हो गया है वह अत्यंत ही पीड़ादायक है। दुनियाभर के लोग भारत में पर्यटन के लिए आते हैं। वे यह भी जानते हैं कि भारत में बेटियों का विशेष सम्मान है, पर जब यह समाचार मिलता है कि विदेशी महिला के साथ दुराचार या बलात्कार हो गया तो यह एक व्यक्ति का अपराध नहीं रहता, पूरे देश को बदनाम करने वाला राष्ट्रीय शर्म का विषय हो जाता है।
कोई दिन ऐसा नहीं होता जब पूरे देश में किसी न किसी भाग में बालिग अथवा नाबालिग के साथ दुराचार का समाचार न मिले। अब तो बलात्कारी इतने क्रूर या बलवान हो गए कि वे इज्जत लूटते हैं, गला भी घोंटते हैं। समाचार मिलता है कि एक युवती का अपहरण हुआ और कार में ही उसके साथ गैंगरेप के बाद आधी मरी, पूरी लुटी युवती को सड़क पर फेंक गए।
यहां मुझे कहना यही है कि अपराधियों को देश के कानून के मुताबिक दंड मिले। कुछ दिन पुलिस दौड़ेगी, अपराधी पकड़े जाएंगे, कानूनी प्रक्रिया और बहुत से केसों में सिफारिशी प्रक्रिया भी चलेगी और जेल की सलाखों के पीछे अपराधी पहुंच जाएंगे। सवाल यह है कि किसी घटना विशेष के बाद सख्त कानून बनाने की घोषणा, दुख प्रकट करने का वक्तव्य या सदा चिंता करने वाले नेताओं की चिंताओं से भरे समाचार कब तक सुनते रहेंगे। हर प्रबुद्ध नागरिक के समक्ष प्रश्न यह है कि आखिर देश का वातावरण इतना वासनामय कैसे हो गया कि प्रतिवर्ष हजारों बालिकाएं और युवतियां बलात्कार जैसे घिनौने अपराध का शिकार हो रही हैं। क्या पुरुष मानसिकता विकृत हो गई है?
जहां भारत की एक बेटी का अपहरण करने वाले को वंश सहित नष्ट करना ही मर्यादा पुरुषोत्तम का पौरुष माना जाता है, वहां आखिर हमारी वर्तमान पीढ़ी क्यों भटक गई? दोष इस देश को चलाने वालों का भी है। कौन नहीं जानता कि अधिकतर अपराध शराब के नशे में होश गंवाकर ही किए जाते हैं, पर अधिकतर उत्सव, खुशी के मौके भी शराब के साथ ही मनाए जाते हैं। सरकारें चाहती हैं कि लोग शराब पिएं। सरकारी खजाना भरने की चिंता रहती है, पर इससे समाज की सेहत कितनी विकृत होगी अथवा सड़क दुर्घटनाओं में कितने लोग मारे जाएंगे, इसकी परवाह सत्ता के शिखरों पर आसीन और दुर्घटनाओं के बाद मगरमच्छीय आंसू बहाने वालों को नहीं। दुखद समाचार यह भी सुनने को मिलता है कि एक वृद्धा का अपहरण कर सामूहिक दुष्कर्म किया गया, हत्या कर दी गई। इस सारे लज्जाजनक और दुखद कांड में शराब का दोष ज्यादा है और शराब पिलाने वालों का तो है ही। सरकार की नाक तले विज्ञापनों द्वारा समाज का वातावरण इतना वासनामय और विलासितापूर्ण हो चुका है कि अबोध मन और छोटी उम्र के लड़के-लड़कियां जब वे सब देखते हैं तो उनकी भी सुप्त इच्छाएं जागती हैं। प्रत्यक्ष जीवन में जो वर्जित है, अपराध है वह सब खुले रूप से ये चैनलों और समाचार पत्रों के माध्यम से दिखाया जाता है। शरीर का भद्दा प्रदर्शन करके नोट कमाने वाले तो सुरक्षित घरों में पहुंच जाते हैं, पर यह सब देखकर भटका हुआ वर्ग अपनी अनियंत्रित वासनाओं को पूरा करने के लिए किसी को भी अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं।
देश के शासक और मीडिया कंपनियों के मालिक इतने स्वार्थी हो गए कि वे युवा पीढ़ी के अपराध की ओर बढ़ते कदमों को देखते हुए भी वासना फैलाने के इस धंधे को बंद करने को तैयार नहीं। शिक्षा के मंदिरों में नैतिक शिक्षा देने का कोई प्रयास नहीं। धर्म निरपेक्षता के ठेकेदार गिरते हुए सामाजिक स्तर को नहीं देखते, लेकिन नैतिक शिक्षा में उन्हें सांप्रदायिकता की बू आने लगती है। अगर स्कूलों कालेजों में शिक्षा के साथ सामाजिक नैतिकता को नहीं जोड़ा गया तो वर्तमान पीढ़ी कहां तक पहुंच जाएगी, इसका अनुमान भी भयावह है। आखिर क्यों युवक-युवतियों के विवाह पूर्व संबंधों को सहजीवन कहकर मान्यता दे दी और कानून भी उनके संरक्षण के लिए आ गया। क्या यह भारत का जीवन मूल्य है? क्या बिना विवाह के शारीरिक संबंध किसी सही दिशा में ले जा सकते हैं? इस संबंध से उत्पन्न हुए बच्चे कैसा भविष्य पाएंगे, यह चिंता भी किसी को नहीं है। दुख यह भी है कि नारी की पूजा करने वाले देश में लाखों वेश्याएं हैं। पाठ पूजा, दान पुण्य, तीर्थ स्नान करके स्वर्ग प्राप्ति का रास्ता दिखाने वाले इस देश के लाखों धर्म गुरु भी उन बेचारियों को इस संसार में बसे नर्क से छुड़ाने के लिए कुछ नहीं करते। कन्या-पूजन के पर्व पर बेटियों की अस्मिता की रक्षा के लिए समाज गंभीरता से सोचे।

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