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पर्यावरण व आर्थिक समानता के मुद्दे हावी

दुनिया के इतिहास में यह पहली मर्तबा है कि विज्ञान राजनीतिक बदलावों को प्रभावित कर रहा है। मौसम परिवर्तन का विज्ञान अब इस कदर स्थापित और अकाट्य है कि इसने पर्यावरण में आए अंतर की हकीकत झुठलाने वालों का मुंह पूरी तरह बंद कर दिया है, यहां तक कि पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाकर बदलावों के बड़े दोषी कॉर्पोरेट्स भी अब सतत् पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने की खातिर अपनी नीतियों का पुनर्निर्धारण एक या अन्य रूपों में करने का प्रयास कर रहे हैं। कोई हैरानी नहीं कि जलवायु बदलावों से बनी जागृति का सबसे स्पष्ट असर यूरोप की राजनीति में आए बदलावों में दिखा है क्योंकि यह महाद्वीप विश्व का सबसे ज्यादा पढ़े-लिखों का है।
पर्यावरणीय बदलावों पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल की नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि हमारे ग्रह के सामने जलवायु परिवर्तन वाली आपदा मुंह बाए खड़ी है। विश्वभर के लोगों द्वारा आपदाओं के अनुभव जैसे कि अचानक आई बाढ़, जंगल तबाह करने वाली आग, सूखा और चरम मौसम बनने के कारण अब ज्यादा से ज्यादा लोग, खासकर युवा ‘हरित राजनीतिÓ की ओर आकर्षित होने लगे हैं। इनमें पर्यावरणीय आपदाओं के साथ सामाजिक-आर्थिक असमानता का बोध भी बढ़ा है, जिसका उद्भव विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में 1990 के दशक में लाई गई पूंजीपति-समर्थक एवं नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को प्रमुखता देने की वजह से हुआ था, तथापि 2008 में आई वैश्विक महामंदी से झटका लगा था। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की मिसाल पर लगा सामाजिक-आर्थिक असमानता रूपी यह बदनुमा दाग सामाजिक-लोकतांत्रिक राजनीति को अधिक अर्थपूर्ण और प्रासंगिक बना देता है। कोविड-19 महामारी में भी अपेक्षाकृत कम आय वर्ग और जातीय अल्पसंख्यकों को त्रासदी का ज्यादा कोपभाजन बनना पड़ा है, जिसने आगे मुक्त बाजार व्यवस्था और नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के गलत असर को उजागर कर दिया है।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप के मुकाबले जो बाइडेन की बर्नी सैंडर्स के नेतृत्व में पर्यावरण कार्यकर्ताओं और वामपंथी गुटों के समर्थन से प्राप्त जीत से नव-उदारवादी नीतियों की लीक में आया मोड़ उजागर हो गया। अब यह चलन यूरोप और काफी हद तक लातिनी अमेरिकी देशों, खासकर हाल में पेरू और इससे पहले अर्जेंटाइना, बोलिविया और वेनेजुएला में पंहुच चुका है, जहां हरित एवं वामपंथी राजनीति में आया उभार सबसे अधिक देखने को मिल रहा है।
अब ताजा मामले में इसी किस्म की तबदीली जर्मनी, जो कि यूरोप का सबसे बड़ा और आर्थिक रूप से सबसे मजबूत देश है, में आई है। एंजेला मर्कल के नेतृत्व में दक्षिणपंथी झुकाव वाली क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) और सहयोगी दल क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) के 16 साल तक चले राज को सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसडीपी) की अगुवाई वाले गठबंधन से चुनौती मिल चुकी है, जिसमें ग्रीन पार्टी और मुक्त बाजारवाद की समर्थक फ्री डेमोक्रेट्स पार्टी व मार्क्सवादी वामपंथी दल डाई लिंके भी संभव है शामिल हो जाएं। इस चुनाव के तीन सबसे रोचक पहलू ये रहे : प्रथम, एसडीपी और सीडीयू के बाद ग्रीन पार्टी तीसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनकर उभरा है। दूसरा, आज तक मिले वोटों की संख्या में इस बार सबसे अधिक यानी 14.8 फीसदी की वृद्धि हुई है। तीसरा, इसको सबसे ज्यादा मत युवावर्ग (30 साल से नीचे) से प्राप्त हुए हैं। एक एक्जि़ट पोल के मुताबिक ग्रीन पार्टी को युवाओं के सबसे अधिक वोट (22 फीसदी) प्राप्त हुए हैं, जिसमें वर्ष 2017 के मुकाबले 11 फीसदी का इज़ाफा हुआ है। इसके बाद नंबर है 7 फीसदी फायदे के साथ 20 फीसदी वोटों वाली फ्री डेमोक्रेट्स पार्टी का, एसडीपी के मत 2 फीसदी घाटे के बाद 17 फीसद रहे, सीडयू-सीएसयू गठबंधन 13 फीसदी मतदाता गंवाने के बाद 11 फीसदी वोट ले पाया, तो आप्रवासियों का विरोध करने वाला दल एएफडी (आल्टरनेटिव फॉर जर्मनी) के वोट 3 फीसदी घटकर 8 फीसदी रह गए। यही हाल डाई लिंके पार्टी का रहा है।
जुलाई महीने में आई तबाहकुन बाढ़ और संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट आने के बाद आम चुनाव में पर्यावरणीय चिंता मुख्य मुद्दा बनकर उभरा। चूंकि यह विषय ग्रीन पार्टी की राजनीति का केंद्र रहा है, लिहाजा इसको चुनावी रूप से काफी फायदा मिला। राष्ट्रीय मानसिकता में बने नए चलन से उत्साहित होकर ग्रीन पार्टी ने पहली बार चांसलर (देश का सर्वोच्च राजनीतिक पद) के चुनाव में अपनी प्रत्याशी एनालिना बायरबॉक को उतारा। चुनाव प्रचार के पहले चरण में, ओपिनयन पोल में, ग्रीन पार्टी की प्रत्याशी चांसलर पद की रेस में आगे रहीं, हालांकि बाद में रिवायती और बेहतर स्रोतयुक्त दल (सीडीयू और एसपीडी) का उम्मीदवार बढ़त बना गया। तथापि इससे राष्ट्रीय जनमानस में यह आभास अवश्य बन गया है कि एक दिन ग्रीन पार्टी सत्तासीन हो सकती है। राष्ट्रीय स्तर पर हुए आम चुनाव के साथ बर्लिन में हुए मतदान संग्रह का नतीजा भविष्य में बृहद बदलाव और मजबूत होना दर्शाता है। बर्लिन जनमत संग्रह में मुख्य मुद्दा था कि जिन अति-धनाढ्यों के पास 3,000 यूनिट से ज्यादा जमीन है, क्यों न उनसे भूमि लेकर वहां वहन योग्य किफायती आवास बनाए जाएं, इस विचार को भारी जीत प्राप्त हुई है।
नये यूरोपियन राजनीतिक चलन का महत्वपूर्ण उदाहरण है नॉर्वे में सितंबर माह में संपन्न हुए चुनाव का परिणाम। नार्वे प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से विश्व के सबसे अमीर देशों में एक है और यह अमेरिका के आंकड़े से अधिक है। नार्वे के चुनाव में भी, जर्मनी की तरह, पर्यावरण और आर्थिक असमानता मुख्य मुद्दे रहे। जलवायु परिवर्तन का विषय नार्वे के लिए इसलिए भी विशेष महत्व रखता है, क्योंकि पश्चिमी यूरोप में वह तेल के अलावा कोयले और गैस का सबसे बड़ा उत्पादक है, अतएव वैश्विक गर्मी में इजाफे का एक बड़ा कारक भी। पर्यावरण चिंतक और वामपंथी विचारों वाले दलों से बना मुक्त गठबंधन, जिसमें शामिल हुई लेबर पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, सेंटर पार्टी (किसानों का दल) रेड पार्टी (मार्क्सवादी) और ग्रीन पार्टी ने मिलकर दक्षिणपंथी कंज़र्वेटिव पार्टी को हरा दिया है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह पहली बार है कि सभी नॉर्डिक मुल्क—नार्वे, डेनमार्क, स्वीडन, फिनलैंड और आईसलैंड में मध्य से वाम की ओर झुकाव वाली सरकारें सत्ता में हैं।
अगस्त माह में, इन नॉर्डिक मुल्कों के पड़ोसी देश स्कॉटलैंड में भी स्कॉटिश नेशनल पार्टी की अगुवाई वाली सरकार में ग्रीन पार्टी शामिल हुई है। दोनों दल युनाइटेड किंग्डम से स्कॉटलैंड की आजादी का समर्थन करते हैं, लेकिन सरकार में ग्रीन पार्टी के सत्ता में भागीदार बनने ने आजाद स्कॉटलैंड की स्थापना हेतु स्वतंत्रता आंदोलन को नए मायने दिए हैं, क्योंकि इसका ध्येय एक न्यायसंगत और सतत् पर्यावरणीय सजगता वाला स्कॉटलैंड बनाना है और यह स्वरूप दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों के दबदबे वाले इंग्लैंड से एकदम अलग होगा।
पश्चिमी जगत के उपरोक्त घटनाक्रम का लघु अवलोकन, जिसमें लैटिन अमेरिकी देशों का भी छोटा-सा वर्णन है, हमें बताता है कि वैश्विक राजनीतिक चलन को नई शक्ल देने में पर्यावरणीय चुनौतियां और आर्थिक असमानता केंद्रीय मुद्दा बनकर उभरेंगे।
लेखक ऑक्सफोर्ड ब्रुक्स बिजऩेस स्कूल, यूके में प्रोफेसर एमेरिट्स हैं।

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